यह वास्तविकता है भारतीय निर्माण फैक्ट्रियों के श्रमिकों की जीवन स्थिति की। और आपने भी अपने आस-पास इसे देखा होगा।

भारत की कुछ औद्योगिक इकाइयाँ जिनमें 24 घंटे काम होता है, उनमें काम करने वाले मजदूर फैक्ट्री परिसर में बने आवासीय क्वार्टर में रहते हैं। आइए, उनकी जीवन स्थिति (LIVNING STATUS) के बारे में जानते हैं।

मैं कुछ दिन पहले निजी काम से एक फैक्ट्री में गया था, जो कुछ उत्पादन का काम करती है। उस फैक्ट्री की उत्पादन प्रणाली ऐसी है कि फैक्ट्री 24 घंटे चलती है। इस कारण वहाँ काम करने वाले मजदूरों को फैक्ट्री परिसर में बने क्वार्टर में रहना पड़ता है। जब मैं फैक्ट्री वर्कर्स की कॉलोनी में गया, तो वहाँ के हालात देखकर मेरे मन को दुख हुआ है। क्योंकि वह जगह कम से कम इंसानों के रहने योग्य तो बिल्कुल भी नहीं थी।

अब यह सवाल उठ रहा था कि क्या फैक्ट्री मालिक, जो मजदूरों की मेहनत से अच्छा लाभ कमाता है, क्या वह उनके लिए रहने की साफ-सुथरी व्यवस्था भी नहीं कर सकता? वो ऐसा नहीं करेगा। क्योंकि मजदूर तो मजबूर हैं, लेकिन मालिक मजबूर नहीं है। ,और अगर ऐसा कानून भी है, तो उसको सख्ती से लागू नहीं किया जाता है।

मुझे इस बात पर आश्चर्य हुआ क्योंकि जब मैंने एक समाचार पत्र में पढ़ा कि स्टॉक मार्केट में सूचीबद्ध एक शराब कंपनी के डिस्टिलरी प्लांट में बाल श्रमिकों को काम कराते हुए पकड़ा गया

अब मेरे मन में प्रश्न उत्पन्न हुआ कि क्या ये मजदूर ऐसा जीवन जीने के लिए मजबूर हैं। इसका उत्तर था कि हाँ, ये मजबूर हैं क्योंकि इन्हें स्थायी रोजगार चाहिए और इन्हें शिफ्ट में काम करना होता है। इसलिए इन्हें फैक्ट्री के अंदर बने आवासीय क्वार्टर में रहना होता है।

संभव उपायों में, फैक्ट्री के एनओसी में यह शर्त जोड़नी होगी कि 12 महीने में उचित आवासीय क्वार्टर बनाए जाएं। आवास के मानक, जैसे साफ पानी और टॉयलेट, निर्धारित किए जाने चाहिए। नियमित निरीक्षण के लिए निगरानी तंत्र स्थापित करना होगा, और समय पर क्वार्टर न बनाने पर जुर्माना लगाया जाना चाहिए।

इसके लिए हम क्या कर सकते हैं? हम सरकार को ऐसे कानून बनाने के लिए सोशल मीडिया अभियान चला सकते हैं।

सामाजिक उत्तरदायित्व आपको अपने आस-पास के लोगों के लिए कुछ अच्छा करने को प्रेरित करता है।